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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पगली - गोद भर गई है जिसकी पर मांग अभी तक खाली है<br>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[जगदीश तपिश]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[मनीषा पांडेय]]</td>
 
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ऊपर वाले तेरी दुनिया कितनी अजब निराली है
+
रेशम के दुपट्टे में टाँकती हैं सितारा
कोई समेट नहीं पाता है किसी का दामन खाली है
+
देह मल-मलकर नहाती हैं,
एक कहानी तुम्हें सुनाऊँ एक किस्मत की हेठी का
+
करीने से सजाती हैं बाल
न ये किस्सा धन दौलत का न ये किस्सा रोटी का
+
आँखों में काजल लगाती हैं
साधारण से घर में जन्मी लाड़ प्यार में पली बढ़ी थी
+
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...
अभी-अभी दहलीज पे आ के यौवन की वो खड़ी हुई थी
+
वो कालेज में पढ़ने जाती थी कुछ-कुछ सकुचाई सी
+
कुछ इठलाती कुछ बल खाती और कुछ-कुछ शरमाई सी
+
प्रेम जाल में फँस के एक दिन वो लड़की पामाल हो गई
+
लूट लिया सब कुछ प्रेमी ने आखिर में कंगाल हो गई
+
पहले प्रेमी ने ठुकराया फिर घर वाले भी रूठ गए
+
वो लड़की पागल-सी हो गई सारे रिश्ते टूट गए
+
  
अभी-अभी वो पागल लड़की नए शहर में आई है
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मन-ही-मन मुस्‍कुराती हैं अकेले में
उसका साथी कोई नहीं है बस केवल परछाई है
+
बात-बेबात चहकती
उलझ- उलझे बाल हैं उसके सूरत अजब निराली-सी
+
आईने में निहारती अपनी छातियों को
पर दिखने में लगती है बिलकुल भोली-भाली-सी
+
कनखियों से
झाडू लिए हाथ में अपने सड़कें रोज बुहारा करती
+
ख़ुद ही शरमा‍कर नज़रें फिराती हैं
हर आने जाने वाले को हँसते हुए निहारा करती
+
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...
कभी ज़ोर से रोने लगती कभी गीत वो गाती है
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कभी ज़ोर से हँसने लगती और कभी चिल्लाती है
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कपड़े फटे हुए हैं उसके जिनसे यौवन झाँक रहा है
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केवल एक साड़ी का टुकड़ा खुले बदन को ढाँक रहा है
+
  
भूख की मारी वो बेचारी एक होटल पर खड़ी हुई है
+
डाकिए का करती हैं इंतज़ार
आखिर कोई तो कुछ देगा इसी बात पे अड़ी हुई है
+
मन-ही-मन लिखती हैं जवाब
गली-मोहल्ले में वो भटकी चौखट-चौखट पर चिल्लाई
+
आने वाले ख़त का
लेकिन उसके मन की पीड़ा कहीं किसी को रास न आई
+
पिछले दफ़ा मिले एक चुंबन की स्‍मृति
उसको रोटी नहीं मिली है कूड़ेदान में खोज रही है
+
हीरे की तरह संजोती हैं अपने भीतर
कैसे उसकी भूख मिटेगी मेरी कलम भी सोच रही है
+
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...
दिल कहता है कल पूछूंगा किस माँ-बाप की बेटी है
+
जाने कब से सोई नहीं है जाने कब से भूखी है
+
ज़ुर्म बताओ पहले उसका जिसकी सज़ा वो झेल रही है
+
गर्मी-सर्दी और बारिश में तूफानों से खेल रही है
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शहर के बाहर पेड़ के नीचे उसका रैन बसेरा है
+
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ
वही रात कटती है उसकी होता वही सवेरा है
+
नदी हो जाती हैं
रात गए उसकी चीखों ने सन्नाटे को तोड़ा है
+
और पतंग भी
जाने कब तक कुछ गुंडों ने उसका ज़िस्म निचोड़ा है
+
कल-कल करती बहती हैं
पुलिस तलाश रही है उनको जिनने ये कुकर्म किया है
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नाप लेती है सारा आसमान
आज चिकित्सालय में उसने एक बच्चे को जन्म दिया है
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किसी रस्‍सी से नहीं बंधती
कहते हैं तू कण-कण में है तुझको तो सब कुछ दिखता है
+
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...
हे ईश्वर क्या तू नारी की ऐसी भी क़िस्मत लिखता है
+
उस पगली की क़िस्मत तूने ये कैसी लिख डाली है
+
गोद भर गई है उसकी पर मांग अभी तक खाली है
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20:09, 20 जनवरी 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ-1
  रचनाकार: मनीषा पांडेय
रेशम के दुपट्टे में टाँकती हैं सितारा
देह मल-मलकर नहाती हैं,
करीने से सजाती हैं बाल
आँखों में काजल लगाती हैं
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

मन-ही-मन मुस्‍कुराती हैं अकेले में
बात-बेबात चहकती
आईने में निहारती अपनी छातियों को
कनखियों से
ख़ुद ही शरमा‍कर नज़रें फिराती हैं
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

डाकिए का करती हैं इंतज़ार
मन-ही-मन लिखती हैं जवाब
आने वाले ख़त का
पिछले दफ़ा मिले एक चुंबन की स्‍मृति
हीरे की तरह संजोती हैं अपने भीतर
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ
नदी हो जाती हैं
और पतंग भी
कल-कल करती बहती हैं
नाप लेती है सारा आसमान
किसी रस्‍सी से नहीं बंधती
प्‍यार में डूबी हुई लड़कियाँ...