"पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १२" के अवतरणों में अंतर
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सबने मृदु मारुत का दारुण, झंझा नर्तन देखा था, | सबने मृदु मारुत का दारुण, झंझा नर्तन देखा था, | ||
:सन्ध्या के उपरान्त तमी का, विकृतावर्तन देखा था! | :सन्ध्या के उपरान्त तमी का, विकृतावर्तन देखा था! | ||
− | काल-कीट-कृत वयस-कुसुम-का, | + | काल-कीट-कृत वयस-कुसुम-का, क्रम से कर्तन देखा था! |
+ | :किन्तु किसी ने अकस्मात् कब, यह परिवर्तन देखा था! | ||
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+ | गोल कपोल पलटकर सहसा, बने भिड़ों के छत्तों-से, | ||
+ | :हिलने लगे उष्ण साँसों में, ओंठ लपालप-लत्तों से! | ||
+ | कुन्दकली-से दाँत हो गये, बढ़ बारह की डाढ़ों से, | ||
+ | :विकृत, भयानक और रौद्र रस, प्रगटे पूरी बाढों-से? | ||
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+ | जहाँ लाल साड़ी थी तनु में, बना चर्म का चीर वहाँ, | ||
+ | :हुए अस्थियों के आभूषण, थे मणिमुक्ता-हीर जहाँ! | ||
+ | कन्धों पर के बड़े बाल वे, बने अहो! आँतों के जाल, | ||
+ | :फूलों की वह वरमाला भी, हुई मुण्डमाला सुविशाल! | ||
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+ | हो सकते थे दो द्रुमाद्रि ही, उसके दीर्घ शरीर-सखा; | ||
+ | :देख नखों को ही जँचती थी, वह विलक्षणी शूर्पणखा! | ||
+ | भय-विस्मय से उसे जानकी, देख न तो हिल-डोल सकीं, | ||
+ | :और न जड़ प्रतिमा-सी वे कुछ, रुद्र कण्ठ से बोल सकीं॥ | ||
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+ | अग्रज और अनुज दोनों ने, तनिक परस्पर अवलोका, | ||
+ | :प्रभु ने फिर सीता को रोका, लक्ष्मण ने उसको टोका। | ||
+ | सीता सँभल गई जो देखी, रामचन्द्र की मृदु मुस्कान, | ||
+ | :शूर्पणखा से बोले लक्ष्मण, सावधान कर उसे सुजान- | ||
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13:07, 29 जनवरी 2010 का अवतरण
पक्षपातमय सानुरोध है, जितना अटल प्रेम का बोध,
उतना ही बलवत्तर समझो, कामिनियों का वैर-विरोध।
होता है विरोध से भी कुछ, अधिक कराल हमारा क्रोध,
और, क्रोध से भी विशेष है, द्वेष-पूर्ण अपना प्रतिशोध॥
देख क्यों न लो तुम, मैं जितनी सुन्दर हूँ उतनी ही घोर,
दीख रही हूँ जितनी कोमल, हूँ उतनी ही कठिन-कठोर!"
सचमुच विस्मयपूर्वक सबने, देखा निज समक्ष तत्काल-
वह अति रम्य रूप पल भर में, सहसा बना विकट-कराल!
सबने मृदु मारुत का दारुण, झंझा नर्तन देखा था,
सन्ध्या के उपरान्त तमी का, विकृतावर्तन देखा था!
काल-कीट-कृत वयस-कुसुम-का, क्रम से कर्तन देखा था!
किन्तु किसी ने अकस्मात् कब, यह परिवर्तन देखा था!
गोल कपोल पलटकर सहसा, बने भिड़ों के छत्तों-से,
हिलने लगे उष्ण साँसों में, ओंठ लपालप-लत्तों से!
कुन्दकली-से दाँत हो गये, बढ़ बारह की डाढ़ों से,
विकृत, भयानक और रौद्र रस, प्रगटे पूरी बाढों-से?
जहाँ लाल साड़ी थी तनु में, बना चर्म का चीर वहाँ,
हुए अस्थियों के आभूषण, थे मणिमुक्ता-हीर जहाँ!
कन्धों पर के बड़े बाल वे, बने अहो! आँतों के जाल,
फूलों की वह वरमाला भी, हुई मुण्डमाला सुविशाल!
हो सकते थे दो द्रुमाद्रि ही, उसके दीर्घ शरीर-सखा;
देख नखों को ही जँचती थी, वह विलक्षणी शूर्पणखा!
भय-विस्मय से उसे जानकी, देख न तो हिल-डोल सकीं,
और न जड़ प्रतिमा-सी वे कुछ, रुद्र कण्ठ से बोल सकीं॥
अग्रज और अनुज दोनों ने, तनिक परस्पर अवलोका,
प्रभु ने फिर सीता को रोका, लक्ष्मण ने उसको टोका।
सीता सँभल गई जो देखी, रामचन्द्र की मृदु मुस्कान,
शूर्पणखा से बोले लक्ष्मण, सावधान कर उसे सुजान-