भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जब आदमी / मुकेश जैन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''जब आदमी '''
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=मुकेश जैन
 +
|संग्रह=वे तुम्हारे पास आएँगे / मुकेश जैन
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
जब आदमी
 +
अपनी आदिमता में जीते होते हैं
 +
वह चींखता है
 +
भयानक
 +
(तो)
 +
रात और स्याह हो जाती है,
  
जब आदमी<br />
+
अपने बंद कमरे में
अपनी आदिमता में जीते होते हैं<br />
+
चादर को अपने चारों ओर
वह चींखता है<br />
+
और कसकर लपेट लेता हूं
भयानक<br />
+
और स्वस्थ सांस लेने को
(तो)<br />
+
मुँह चादर से बाहर निकालने का
रात और स्याह हो जाती है,<br /><br />
+
साहस नहीं होता
  
अपने बंद कमरे में<br />
+
वह क्यों चींखता है
चादर को अपने चारों ओर<br />
+
यह सवाल
और कसकर लपेट लेता हूं<br />
+
बहरहाल  
और स्वस्थ सांस लेने को<br />
+
मैं
मुँह चादर से बाहर निकालने का<br />
+
रात के अंधेरे में नहीं पूछता  
साहस नहीं होता,<br /><br />
+
दिन के उजाले में सोचता हूं.
 
+
वह क्यों चींखता है<br />
+
यह सवाल<br />
+
बहरहाल<br />
+
मैं<br />
+
रात के अंधेरे में नहीं पूछता<br />
+
दिन के उजाले में सोचता हूं.<br /><br />
+
 
 
फ़िलहाल<br />
+
फ़िलहाल
मेरे पास<br /><br />
+
मेरे पास
  
इस सवाल का कोई ज़वाब नहीं<br />
+
इस सवाल का कोई ज़वाब नहीं  
 
वह किसके विरुद्ध चींखता है  
 
वह किसके विरुद्ध चींखता है  
  
  
 
'''रचनाकाल:''' ०२/दिसम्बर/१९८८
 
'''रचनाकाल:''' ०२/दिसम्बर/१९८८
 +
</poem>

20:12, 1 फ़रवरी 2010 का अवतरण

जब आदमी
अपनी आदिमता में जीते होते हैं
वह चींखता है
  भयानक
(तो)
रात और स्याह हो जाती है,

अपने बंद कमरे में
चादर को अपने चारों ओर
और कसकर लपेट लेता हूं
और स्वस्थ सांस लेने को
मुँह चादर से बाहर निकालने का
साहस नहीं होता

वह क्यों चींखता है
यह सवाल
बहरहाल
मैं
रात के अंधेरे में नहीं पूछता
दिन के उजाले में सोचता हूं.

फ़िलहाल
मेरे पास

इस सवाल का कोई ज़वाब नहीं
वह किसके विरुद्ध चींखता है


रचनाकाल: ०२/दिसम्बर/१९८८