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"अपनी मर्ज़ी से कहाँ / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

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पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
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कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |
  
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं<br>
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चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |<br><br>
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सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |
  
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब<br>
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गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |<br><br>
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हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |
 
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हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |<br><br>
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20:05, 2 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |