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"कुछ दोहे / रवीन्द्र प्रभात" के अवतरणों में अंतर

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14:14, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण

1.
निर्वाचन के घाट पे, भई नेतन की भीड़!
जनता बन गई द्रौपदी, खींच रहे हैं चीर!!

2.

गदहा गाए भैरवी, तनिक न लागै लाज!
शाकाहारी बन गए, गिद्ध-गोमायु-बाज!!

3.

पक्ष और प्रतिपक्ष में, ढूँढ़ रहे सब खोंच!
पाँच बरस तक चोंचले, ख़ूब लड़ाए चोंच!!

4.
 
हरियाली की बात करे, सूख गए जब पात!
जनता भोली देखती, नेता का उत्पात!!

5.
 
कृष्ण-दुःशासन साथ हैं, अर्जुन बेपरवाह!
कोई मसीहा आए, दिखलाए अब राह!!

6.

तन पे साँकल फागुनी, नेह लुटाए मीत!
पके आम-सा मन हुआ, रची पान-सी प्रीत!!

7.

महुआ पीकर मस्त है, रंग भरी मुस्कान!
झूम रहे हैं आँगने, बूढे और जवान!!

8.

धूप चढ़ी आकाश में, मन में ले उपहास!
पानी-पानी कर गया बासंती एहसास!!

9.

चूनर-चूनर टाँकती, हिला-हिला के पाँव!
शहर से चलकर आया, जबसे साजन गाँव!!

10.

मंगलमय हो आपको, होली का त्यौहार!

रसभीनी शुभकामना, मेरी बारम्बार!!

11.

कान्हा-कान्हा ढूँढ़ती, ताक-झाँक के आज।

कौन बचाएगा यहाँ, पांचाली की लाज।।

12.

गिद्ध-गोमायु-बाज में, राम-नाम की होड़।

मरघट-मरघट घूमते, तोते आदमखोर।।

13.

कातिल-कातिल ढूंढ के, मुद्दई करे गुहार।
मोल-तोल में व्यस्त हैं, मुंसिफ औ’ सरकार।।
 
14.

राग-भैरवी छेड़ गए, कैसी बे-आवाज़।
उछल-कूद कर मंच मिला, बन बैठे कविराज।।

15.

घर-घर बाँचे शायरी, शायर-संत-फ़कीर।
भारत देश महान है, सब तुलसी, सब मीर।।

16.

राजनीति के आँगने, परेशान भगवान।
नेत-धरम सब छोड़ के, पंडित भयो महान।।

17.

हँस-हँस कहती धूप से, परबत-पीर-प्रमाद।
बहकी-बहकी आँच दे, पिघला दे अवसाद।।

18.

यौवन की दहलीज पे, गणिका बाँचे काम।
बगूला-गिद्ध-गोमायु सब, साथ बिताएँ शाम।।

19.

मह-मह करती चाँदनी, सूख गए जब पात।
रात नुमाईश कर गई, कैसे हँसे प्रभात।।

20.

नदी पियासी देख के, ना बरसे अब मेह।
धड़कन की अनुगूँज से, बादल बना विदेह।।