भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कर्म की भाषा / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=चैती / त्रिलोचन
 
|संग्रह=चैती / त्रिलोचन
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
रात ढली, ढुलका बिछौने पर,
 
रात ढली, ढुलका बिछौने पर,
 
 
प्रश्न किसी ने किया,
 
प्रश्न किसी ने किया,
 
 
तू ने काम क्या किया
 
तू ने काम क्या किया
 
  
 
नींद पास आ गई थी
 
नींद पास आ गई थी
 
 
देखा कोई और है
 
देखा कोई और है
 
 
लौट गई
 
लौट गई
 
  
 
मैं ने कहा, भाई, तुम कौन हो.
 
मैं ने कहा, भाई, तुम कौन हो.
 
+
आओ। बैठो। सुनो।
आओ. बैठो. सुनो.
+
 
+
  
 
विजन में जैसे व्यर्थ किसी को पुकारा हो,
 
विजन में जैसे व्यर्थ किसी को पुकारा हो,
 
 
ध्वनि उठी, गगन में डूब गई
 
ध्वनि उठी, गगन में डूब गई
 
 
मैंने व्यर्थ आशा की,
 
मैंने व्यर्थ आशा की,
 
+
व्यर्थ ही प्रतीक्षा की।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा की.
+
 
+
  
 
सोचा, यह कौन था,
 
सोचा, यह कौन था,
 
 
प्रश्न किया,
 
प्रश्न किया,
 
 
उत्तर के लिए नहीं ठहरा
 
उत्तर के लिए नहीं ठहरा
 
 
मन को किसी ने झकझोर दिया
 
मन को किसी ने झकझोर दिया
 
 
तू ने पहचाना नहीं ?
 
तू ने पहचाना नहीं ?
 
 
यही महाकाल था
 
यही महाकाल था
 
 
तुझ को जगा के गया
 
तुझ को जगा के गया
 
 
उत्तर जो देना हो
 
उत्तर जो देना हो
 
 
अब इस पृथिवी को दे
 
अब इस पृथिवी को दे
 
+
कर्मों की भाषा में।
कर्मों की भाषा में.
+
</poem>

04:53, 22 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

रात ढली, ढुलका बिछौने पर,
प्रश्न किसी ने किया,
तू ने काम क्या किया

नींद पास आ गई थी
देखा कोई और है
लौट गई

मैं ने कहा, भाई, तुम कौन हो.
आओ। बैठो। सुनो।

विजन में जैसे व्यर्थ किसी को पुकारा हो,
ध्वनि उठी, गगन में डूब गई
मैंने व्यर्थ आशा की,
व्यर्थ ही प्रतीक्षा की।

सोचा, यह कौन था,
प्रश्न किया,
उत्तर के लिए नहीं ठहरा
मन को किसी ने झकझोर दिया
तू ने पहचाना नहीं ?
यही महाकाल था
तुझ को जगा के गया
उत्तर जो देना हो
अब इस पृथिवी को दे
कर्मों की भाषा में।