"कारवां गुज़र गया / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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− | स्वप्न झरे फूल से, | + | <poem> |
− | मीत चुभे शूल से, | + | स्वप्न झरे फूल से, |
− | लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, | + | मीत चुभे शूल से, |
− | और हम | + | लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, |
− | + | और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे | |
+ | कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! | ||
− | नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, | + | नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, |
− | पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई, | + | पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई, |
− | + | पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई, | |
− | चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई, | + | चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई, |
− | गीत | + | गीत अश्क़ बन गए, |
− | छंद हो | + | छंद हो दफ़न गए, |
− | साथ के सभी दिऐ | + | साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये, |
− | और हम | + | और हम झुके-झुके, |
− | मोड़ पर | + | मोड़ पर रुके-रुके |
− | उम्र के चढ़ाव का उतार देखते | + | उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे |
− | + | कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। | |
− | क्या शबाब था कि | + | क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा, |
− | क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा | + | क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा |
− | + | इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा, | |
− | थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा, | + | थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा, |
− | एक दिन मगर यहाँ, | + | एक दिन मगर यहाँ, |
− | ऐसी कुछ हवा चली, | + | ऐसी कुछ हवा चली, |
− | लुट गयी | + | लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली, |
− | और हम | + | और हम लुटे-लुटे, |
− | वक्त से | + | वक्त से पिटे-पिटे, |
− | साँस की शराब का खुमार देखते | + | साँस की शराब का खुमार देखते रहे |
− | + | कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। | |
− | हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ, | + | हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ, |
− | + | होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ, | |
− | दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ, | + | दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ, |
− | और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ, | + | और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ, |
− | हो सका न कुछ मगर, | + | हो सका न कुछ मगर, |
− | शाम बन गई सहर, | + | शाम बन गई सहर, |
− | वह उठी लहर कि दह गये किले | + | वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर, |
− | और हम | + | और हम डरे-डरे, |
− | नीर नयन में भरे, | + | नीर नयन में भरे, |
− | ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते | + | ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे |
− | + | कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! | |
− | माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन, | + | माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन, |
− | ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे | + | ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण, |
− | शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन, | + | शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन, |
− | गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन | + | गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन, |
− | पर तभी ज़हर भरी, | + | पर तभी ज़हर भरी, |
− | + | ग़ाज एक वह गिरी, | |
− | + | पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी, | |
− | और हम अजान से, | + | और हम अजान से, |
− | दूर के मकान से, | + | दूर के मकान से, |
− | पालकी लिये हुए कहार देखते रहे। | + | पालकी लिये हुए कहार देखते रहे। |
− | + | कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। | |
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00:55, 23 मार्च 2010 का अवतरण
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।