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02:49, 5 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
दुर्भाग्य के दिनों में सुंदरता की फि़क्र करना कला से ज़्यादा जिजीविषा है
हमारे जीवन में ज्ञान का सबसे बड़ा योगदान कि वह हमारे दुखों में अकल्पनीय इज़ाफ़ा करता है
मुझसे छीनी गई पहली चीज़ थी मेरा आध्यात्मिक विवेक उसके बाद छिनी चीज़ों की फ़ेहरिस्त ही न बना पाया
फिर ऐसा कुछ भी न बचा बची जिसकी मुझमें इच्छा हो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ करता था जिसकी मुझमें इच्छा न रही
इतने बरसों से मैं ठीक वैसा ही हूं अपने आप जैसा इसका कोई अफ़सोस न रहा
कितने दिनों से अंदाज़ा नहीं कि मेरी पिंडलियां शरीर के किसी काम भी आती हैं
मैं एक प्रतिध्वनि बना रहा जिसे अपने उत्स का भान नहीं दीवारों पहाड़ों घाटियों से टकराता और दोगुना होने के भरम में आधा होता जाता
आंख के भीतर पानी वैसे ही छटपटाता है जैसे कट गए बकरे के अंग
अत्याचार सहने में कोई तजुर्बा काम नहीं आता
मैं ऐसे बताता अपना नाम जैसे अर्थी के पीछे कोई मरने वाले का नाम बता रहा हो