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"यही आभास होता है शहर से आके गाँवों में / पवनेन्द्र पवन" के अवतरणों में अंतर
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वो जिसने आग भड़काई है नफ़रत की हर इक दिल में | वो जिसने आग भड़काई है नफ़रत की हर इक दिल में | ||
− | है गाता फिर रहा पानी पे ग़ज़लें | + | है गाता फिर रहा पानी पे ग़ज़लें गाँवों-गाँवों में |
मिले हैं लोग कुछ ऐसे भी हमको शहर में आकर | मिले हैं लोग कुछ ऐसे भी हमको शहर में आकर | ||
कहा करती थी दादी माँ असुर जिनको कथाओं में | कहा करती थी दादी माँ असुर जिनको कथाओं में | ||
− | उसी के पास है मानो वो | + | उसी के पास है मानो वो अल्लाहदीन का दीपक |
निकल ही जाता है बचकर जो सारी आपदाओं से | निकल ही जाता है बचकर जो सारी आपदाओं से | ||
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12:19, 25 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
यही आभास होता है शहर से आके गाँवों में
मैं तपती धूप से जैसे चला आया हूँ छाँवों में
वो निकला चोर है जब भी हक़ीक़त खुल के आई है
रहा होता है सम्मानित जो व्यक्ति जनसभाओं में
वो जिसने आग भड़काई है नफ़रत की हर इक दिल में
है गाता फिर रहा पानी पे ग़ज़लें गाँवों-गाँवों में
मिले हैं लोग कुछ ऐसे भी हमको शहर में आकर
कहा करती थी दादी माँ असुर जिनको कथाओं में
उसी के पास है मानो वो अल्लाहदीन का दीपक
निकल ही जाता है बचकर जो सारी आपदाओं से