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"हिचकते औ' होते भयभीत / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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हुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त
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हिचकते औ' होते भयभीत
  
नहीं, पर, थी वह भेंट, न दान,
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सुरा को जो करते स्‍वीकार,
  
अमृत भी मुझको अस्‍वीकार
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उन्‍हें वह मस्‍ती का उपहार
  
अगर कुंठित हो मेरा मान;
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हलाहल बनकर देता मार;
  
  
:::दृगों में मोती की निधि खोल
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:::मगर जो उत्‍सुक-मन, झुक-झूम
  
:::चुकाया था मधुकण का मोल,
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:::हलाहल पी जाते सह्लाद,
  
:::हलाहल यदि आया है यदि पास
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:::उन्‍हें इस विष में होता प्राप्‍त
  
:::हृदय का लोहू दूँगा तोल!
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:::अमर मदिरा का मादक स्‍वाद।

12:53, 26 मई 2010 का अवतरण


हिचकते औ' होते भयभीत

सुरा को जो करते स्‍वीकार,

उन्‍हें वह मस्‍ती का उपहार

हलाहल बनकर देता मार;


मगर जो उत्‍सुक-मन, झुक-झूम
हलाहल पी जाते सह्लाद,
उन्‍हें इस विष में होता प्राप्‍त
अमर मदिरा का मादक स्‍वाद।