"ताजमहल / साहिर लुधियानवी" के अवतरणों में अंतर
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तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही<br><br> | तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही<br><br> | ||
− | + | मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से! <br><br> | |
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी <br> | बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी <br> | ||
− | सब्त जिस राह | + | सब्त जिस राह में हों सितवत-ए-शाही के निशाँ <br> |
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी <br><br> | उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी <br><br> | ||
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशीर-ए-वफ़ा <br> | मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशीर-ए-वफ़ा <br> | ||
− | तू ने | + | तू ने सितवत के निशानों को तो देखा होता <br> |
− | मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से | + | मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली <br> |
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता <br><br> | अपने तारीक मकानों को तो देखा होता <br><br> | ||
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है <br> | अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है <br> | ||
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के <br> | कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के <br> | ||
− | लेकिन उन के लिये | + | लेकिन उन के लिये तशहीर का सामान नहीं <br> |
− | + | क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे <br>v | |
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार <br> | ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार <br> | ||
− | मुतल- | + | मुतल-क़ुलहुक्म शहंशाहों की अज़मत के सुतूँ <br> |
दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है <br> | दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है <br> | ||
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ <br><br> | जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ <br><br> | ||
− | मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी <br> | + | मेरी महबूब ! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी <br> |
जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील <br> | जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील <br> | ||
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद <br> | उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद <br> | ||
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ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल <br> | ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल <br> | ||
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़ <br> | ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़ <br> | ||
− | इक | + | इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर <br> |
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक <br><br> | हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक <br><br> | ||
− | + | मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से! <br><br> |
01:40, 4 नवम्बर 2007 का अवतरण
रचनाकार: साहिर लुधियानवी
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ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह में हों सितवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशीर-ए-वफ़ा
तू ने सितवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के
लेकिन उन के लिये तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
v
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतल-क़ुलहुक्म शहंशाहों की अज़मत के सुतूँ
दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ
मेरी महबूब ! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!