भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ५" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: लेखक: जयशंकर प्रसाद Category:कविताएँ Category: जयशंकर प्रसाद ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ '''इस...)
 
पंक्ति 69: पंक्ति 69:
 
<br />
 
<br />
 
मणिदीप विश्व-मन्दिर की<br />
 
मणिदीप विश्व-मन्दिर की<br />
पहने किरणों को माला<br />
+
पहने किरणों की माला<br />
 
तुम अकेली तब भी<br />
 
तुम अकेली तब भी<br />
 
जलती हो मेरी ज्वाला।<br />
 
जलती हो मेरी ज्वाला।<br />
पंक्ति 90: पंक्ति 90:
 
इस व्यथित विश्व पतझड़ की<br />
 
इस व्यथित विश्व पतझड़ की<br />
 
तुम जलती हो मृदु होली<br />
 
तुम जलती हो मृदु होली<br />
हे अरुणे! सदा सुहानिगि<br />
+
हे अरुणे! सदा सुहागिनि <br />
 
मानवता सिर की रोली।<br />
 
मानवता सिर की रोली।<br />
 
<br />
 
<br />
पंक्ति 126: पंक्ति 126:
 
जागो मेरे मधुवन में <br />
 
जागो मेरे मधुवन में <br />
 
फिर मधुर भावनाओं का <br />
 
फिर मधुर भावनाओं का <br />
कवरव हो इस जीवन में।<br />
+
कलरव हो इस जीवन में।<br />
 
<br />
 
<br />
 
मेरी आहों में जागो<br />
 
मेरी आहों में जागो<br />

14:37, 30 अप्रैल 2007 का अवतरण

लेखक: जयशंकर प्रसाद

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

इस रचना का मुखपृष्ठ: आँसू / जयशंकर प्रसाद


सपनों की सोनजुही सब
बिखरें, ये बनकर तारा
सित सरसित से भर जावे
वह स्वर्गंगा की धारा

नीलिमा शयन पर बैठी
अपने नभ के आँगन में
विस्मृति की नील नलिन रस
बरसो अपांग के घन से।

चिर दग्ध दुखी यह वसुधा
आलोक माँगती तब भी
तम तुहिन बरस दो कन-कन
यह पगली सोये अब भी।

विस्मृति समाधि पर होगी
वर्षा कल्याण जलद की
सुख सोये थका हुआ-सा
चिन्ता छुट जाय विपद की।

चेतना लहर न उठेगी
जीवन समुद्र थिर होगा
सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की
विच्छेद मिलन फिर होगा।

रजनी की रोई आँखें
आलोक बिन्दु टपकातीं
तम की काली छलनाएँ
उनको चुप-चुप पी जाती।

सुख अपमानित करता-सा
जब व्यंग हँसी हँसता हैं
चुपके से तब मत रो तू
यब कैसी परवशता हैं।

अपने आँसू की अंजलि
आँखो से भर क्यों पीता
नक्षत्र पतन के क्षण में
उज्जवल होकर है जीता।

वह हँसी और यह आँसू
घुलने दे-मिल जाने दे
बरसात नई होने दे
कलियों को खिल जाने दे।

चुन-चुन ले रे कन-कन से
जगती की सजग व्यथाएँ
रह जायेंगी कहने को
जन-रंजन-करी कथाएँ।

जब नील दिशा अंचल में
हिमकर थक सो जाते हैं
अस्ताचल की घाटी में
दिनकर भी खो जाते हैं।

नक्षत्र डूब जाते हैं
स्वर्गंगा की धारा में
बिजली बन्दी होती जब
कादम्बिनी की कारा में।

मणिदीप विश्व-मन्दिर की
पहने किरणों की माला
तुम अकेली तब भी
जलती हो मेरी ज्वाला।

उत्ताल जलधि वेला में
अपने सिर शैल उठाये
निस्तब्ध गगन के नीचे
छाती में जलन छिपाये

संकेत नियति का पाकर
तम से जीवन उलझाये
जब सोती गहन गुफा में
चंचल लट को छिटकाये।

वह ज्वालामुखी जगत की
वह विश्व वेदना बाला
तब भी तुम सतत अकेली
जलती हो मेरी ज्वाला!

इस व्यथित विश्व पतझड़ की
तुम जलती हो मृदु होली
हे अरुणे! सदा सुहागिनि
मानवता सिर की रोली।

जीवन सागर में पावन
बडवानल की ज्वाला-सी
यह सारा कलुष जलाकर
तुम जलो अनल बाला-सी।

जगद्वन्द्वों के परिणय की
हे सुरभिमयी जयमाला
किरणों के केसर रज से
भव भर दो मेरी ज्वाला।

तेरे प्रकाश में चेतन-
संसार वेदना वाला,
मेरे समीप होता है
पाकर कुछ करुण उजाला।

उसमें धुँधली छायाएँ
परिचय अपना देती हैं
रोदन का मूल्य चुकाकर
सब कुछ अपना लेती हैं।

निर्मम जगती को तेरा
मंगलमय मिले उजाला
इस जलते हुए हृदय को
कल्याणी शीतल ज्वाला।

जिसके आगे पुलकित हो
जीवन हैं सिसकी भरता
हाँ मृत्यु नृत्य करती हैं
मुस्क्याती खड़ी अमरता ।

वह मेरे प्रेम विहँसते
जागो मेरे मधुवन में
फिर मधुर भावनाओं का
कलरव हो इस जीवन में।

मेरी आहों में जागो
सुस्मित में सोनेवाले
अधरों से हँसते-हँसते
आँखों से रोनेवाले।

इस स्वप्नमयी संसृत्ति के
सच्चे जीवन तुम जागो
मंगल किरणों से रंजित
मेरे सुन्दरतम जागो।

अभिलाषा के मानस में
सरसिज-सी आँखे खोलो
मधुपों से मधु गुंजारो
कलरव से फिर कुछ बोलो।