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चौदह कोसी अयोध्या में
आतें हैं तीर्थ-यात्री
परिक्रमाएँ करते हैं
नंगे-पाँव
उनके पाँवों के साथ
चलती है अयोध्या
डोलते हैं राम
आस्था के जंगल में
छिलते हैं पाँवों के छाले
रिसता है खून
तीर्थ यात्री
दुखों की गठरियाँ
ढोते हैं सिर पर
उफनती है सरयू
कि धो दे उनके पाँव
उमगती है हवा
कि सुखा दे उनके घाव
पर उनकी परिक्रमा
कल भी अनवरत थी
आज भी अनवरत है
सदियों तक होगी यूँ ही
चौदह कोसी खोज
राम की ।