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"उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये <br>
 
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये <br>

20:23, 27 जनवरी 2008 का अवतरण

उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये
बैठा रहा अगर्चे इशारे हुआ किये

दिल ही तो है सियासत-ए-दर्बाँ से डर गया
मैं और जाऊँ दर से तेरे बिन सदा किये

रखता फिरूँ हूँ ख़ीर्क़ा-ओ-सज्जादा रहन-ए-मै
मुद्दत हुई है दावत-ए-आब-ओ-हवा किये

बेसर्फ़ा ही गुज़रती है, हो गर्चे उम्र-ए-ख़िज़्र
हज़रत भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किये

मक़दूर हो तो ख़ाक से पूछूँ के अए लैइम
तूने वो गंज हाये गिराँमाया क्या किये

किस रोज़ तोहमतें न तराशा किये अदू
किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किये

सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसे बग़ैर इल्तिजा किये

ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये

"ग़ालिब" तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये