"बाज़ार में आलोचक / मुकेश मानस" के अवतरणों में अंतर
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13:02, 24 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
एक
सिर पर लगाये टोपी
और चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान लिये
नमस्कार के अंदाज में
अपनी नज़रों को गिराता-उठाता हुआ
पुस्तक मेले में घूम रहा था
हिन्दी का एक नामावर आलोचक
उसके पीछे थी एक कतार
गर्दन झुकाये और श्रद्धानत
कवियों और लेखकों की
जिनको उसने बिकाऊ बना दिया था
हिन्दी जनता के बीच
उसे कर रहे थे सलाम
प्रकाशक झुक-झुक कर
जिनकी छापी हुई किताबें
उसकी लिखी हुई भूमिका के साथ
बाज़ार में भारी मुनाफ़ा कमा रही थीं
पुस्तक मेले में अपना माथा उठाये
किसी बादशाह की तरह
अपने साम्राज्य का निरीक्षण करता
हिन्दी का एक नामावर आलोचक
दो
उसके इशारे पर उठते हैं कवि
उसके इशारे पर गिरते हैं कवि
उसके इशारे पर होते हैं
कविगण स्वीकार-अस्वीकार
किसी को मिलती है धूल
कोई पाता है पुरस्कार
तीन
वह लेखक गुट को पह्चान कर
आयोजकों की औकात नापकर
माहौल की हवा सूँघकर
समय की धार जानकर
चंद शब्द उच्चारता है
वह अपने शब्दों की कीमत पह्चानता है
चार
जिस टोपी को पहनकर
वह किसी बादशाह सा दिखता है
उसी टोपी को उतारकर
और अपने हाथों में कटोरे सा रखकर
किसी बिरला या टाटा के दरबार में
भिखारी हो जाता है
और हिन्दी का एक नामावर आलोचक
दरियागंज के भिखारियों की पाँत में खो जाता है
2000