भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुमकिन है / बुद्धिनाथ मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बुद्धिनाथ मिश्र |संग्रह=शिखरिणी / बुद्धिनाथ मि…)
 
(कोई अंतर नहीं)

09:58, 19 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

लिख गई पूरी सदी
पागल हवा के नाम
राख में चिनगी दफ़न हो जाय
मुमकिन है ।

एक पहिया घूम
आया त्रासदी के पास
इस खुशी में बेतरह
रौंदे गये मधुमास
जंग खाये स्तोत्र
फिर गूँजे सुबह से शाम

सिर बँधी पगड़ी कफ़न हो जाय
मुमकिन है ।

सख्त हैं सच की तरह
होते नहीं दोहरे
आइनों से हैं बहुत
नाराज़ कुछ चेहरे
भीड़ की जागीर है
जंगल उठाओ जाम

आग बस्ती में सपन हो जाय
मुमकिन है ।

हर कलम की पीठ पर
उभरी हुई साटें
पूछतीं--हयमेध का
यह दिन कहाँ काटें
मंत्र,जो जयघोष में पिछड़े
हुए गुमनाम

यह हँसी चिढ़कर घुटन हो जाय
मुमकिन है ।