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"सात मुक्तक / गिरिराज शरण अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो            
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पेड़ हैं लचकेंगे, फिर सीधे खड़े हो जाएँगे           
यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर जाएगा           
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नाचते गाते रहेंगे, आँधियों के दरमियाँ            
सिर्फ़ साहस ही नहीं, धीरज भी तो दरकार है           
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आपदाओं से कहाँ धूमिल हुई जीवन की जोत
सीढि़याँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा
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फूल खिलते रहे हैं कंटकों के दरमियाँ
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12:04, 25 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

1.
पेड़ हैं लचकेंगे, फिर सीधे खड़े हो जाएँगे
नाचते गाते रहेंगे, आँधियों के दरमियाँ
आपदाओं से कहाँ धूमिल हुई जीवन की जोत
फूल खिलते आ रहे हैं कंटकों के दरमियाँ


2.
हर दिशा से तीर बरसे, घाव भी लगते रहे
ज़िंदगी भर दिल मेरा आघात से लड़ता रहा
दोस्त! कस-बल की नहीं, यह हौसले की बात है
कितना छोटा था दिया, पर रात से लड़ता रहा

3.
यदि कभी अवसर मिले, दोनों का अंतर सोचना
दर्द सहना वीरता है, जुल्म सहना पाप है
स्वप्न में भी सावधानी शर्त है, जीना जो हो
जागती आँखें लिए निंद्रा में रहना पाप है


4.
बिजलियाँ कैसे बनी हैं बादलों से पूछिए
है समंदर का पता क्या बारिशों से पूछिए
छेद कितने कर दिए हैं रात के आकार में
दीपकों की नन्ही-नन्ही उँगलियों से पूछिए

5.
आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है
ज़िंदगी हर घाव अपना सी न ले तो बात है
एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात
सुबह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है

6.
नाम चाहा न कभी भूल के शोहरत माँगी
हमने हर हाल में ख़ुश रहने की आदत माँगी
हो न हिम्मत तो है बेकार यह दौलत ताक़त
हमने भगवान से माँगी है तो हिम्मत माँगी

7.
असल परछाईं भी क्या है, उजाला सीख लेता है
ढलानों पर, रुका दरिया फ़िसलना सीख लेता है
सुगंधित पत्र पाकर उसका मैं सोचा किया पहरों
मिले खुशबू तो कागज भी महकना सीख लेता है