भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जिबह-बेला / निलय उपाध्याय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निलय उपाध्याय |संग्रह=}} {{KKCatKavita}} <poem> मेरे मुँह मे ठ…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:47, 19 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
मेरे मुँह मे ठुँसा है कपड़ा
ऐंठ कर पीछे बँधे हैं हाथ
कोई कलगी नोचता हॆ
कोई पाख
कोई गर्दन काटता हॆ
कोई टाँग
हलक मे सूख गई हॆ
मेरी चीख़
मारने से पहले जैसे बिल्ली
चूहे से खेलती है
कोई
खेल रहा है हमसे
लो
फिर आ गए
फिर आ गए सात समन्दर पार से
कसाई....
फिर आया गँडासा
दिल्ली के हाथ