भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोपालःशोकगीत 1984 - वृक्षों का प्रार्थना गीतः2 / राजेश जोशी

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 3 अक्टूबर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत छुओ, हमें मत छुओ बसंत।
हो सके तो लकड़हारों को बुलाओ
जो काट डालें हमें
आग में झोंक दें।

हमारे स्वप्न में अब कोई जगह नहीं
फलों और फूलों से लदे होने के
स्वप्न के लिए !
अब हमारी रात में, हमारी नींद में
सिर्फ़ मृत्यु घूमती है नंगे पाँव
दौड़ते भागते हाँफते
असमय मरते हैं बच्चे औरतें पुरुष
निरपराध !

कोई कब तक, कब तक देख सकता है
अनवरत मरते, दम तोड़ते हज़ारों लोगों को
हर रात!

मत छुओ, हमें मत छुओ बसंत
हो सके तो लकड़हारों को बुलाओ
जो काट डालें
आग में झोंक दें हमें
मुक्त कर दें हमें
इस भयावह स्वप्न से !