भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हूं के बोलूं / जनकराज पारीक
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:40, 16 अक्टूबर 2013 का अवतरण
म्हूं तो कुछ नीं बोलूं
म्हूं तो चुप हूं साहब,
बाहर सूं दीखूं-
भीतर सूं घुप हूं साहब ।
दड़ बोच्यां बैठ्यो हूं
डरतो तलवारां सूं-
मीठो खरबूजो हूं
कट जासूं धारां सूं ।
थे बळती तीळी माचस री
म्हूं तूडी़ रो कुप हूं साहब ।
थे म्हारी किस्मत रा मालक
थे कहदयो सो ठीक।
हुकुम-हज़ूरी गोल-चाकरी
म्हां हाथां री लीक,
चौकस-चतुर फ़ील्डर थे,अर
म्हूं सीदो सो गुप हूं साहब ।