भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़रा ठहरो / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:15, 3 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़रा ठहरो
इस मकान की पहली बरसात
याद आ गई घर की ।

छोटे भाई-बहनों को न निकलने की
हिदायत देती हुई

जल्दी-जल्दी बाहर से कपड़े
समेट रही होगी माँ ।

पिता चढ़ आए होंगे छत पर
भाई निकल गया होगा
साइकिल पर बरसाती लेने ।

पानी ज़रा ठहरो छत को ठीक होने दो
ले आने दो भाई को बरसाती ।