भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखना / शिवदयाल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 19 मई 2011 का अवतरण
देखो ऐसे
कि वह सबका देखना हो
अलग देखना
अलग तरह से देखना
अलग-अलग कर देता है
सब कुछ
वह समय
सबसे ख़राब रहा
जबकि तुमने वही देखा
जो तुमने देखना चाहा
क्योंकि तुम्हारा देखना
सबका देखना नहीं था
और सबका भोगना
तुम्हारा भोगना नहीं...
जिओ ऐसे
कि वह सबका जीना हो