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कुहासे / एम० के० मधु

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नित नई सांझ को पुराने चेहरे याद आते हैं
इस बीच
धुंधली-धुंधली एक आकृति अनावृत होती है
फैल जाते हैं मस्तिष्क में कुहासे
और एक पतली सी किरण-रेखा
कुहासे के बन्द दरवाज़े से झांक जाती है

मैं निर्निमेष तकता हूं उस लकीर को
जो मेरी हथेली में कभी दर्ज़ थी

फिर खो जाता हूं ऐसे
जैसे पढ़ ली हो अपनी पुरानी डायरी के
कुछ विशिष्ट पन्नों को।