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दीवाली इस बार / प्रमोद कौंसवाल

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रेला था धुएं का ना आसमान में
खुलती छतरी बम्ब थे ना कनस्तर फ़ोड़
ना आकाश चरखी दीये भी दूर रौशन थीं
दीपमालाएं वह थीं
जो बच्चों के हाथों में
चलीं थीं फूलझड़ियां कुछ थोड़े बहुत ही रहे होंगे
पटाख़े बजाते उनमें मेरे बच्चे थे
कई बच्चे सरदारों के
कई दूर खड़े सुबह के इंतज़ार में
उस फ़ुटपाथ से जले-अधजले
वह भी उठाएंगे ढेर से सुबह जलाएंगे कुछ बजेंगे
कुछ सिर्फ़ फ़ुसफ़ुसाकर रह जाएंगे

कुछ मनाई है ऐसे भी संदीप ने गोद लिया बच्चा
खिलखिलाता हुआ वह आया
आंगन से निकला तो
एक और दुनिया थी अनाथ
कुछ बच्चे और रह गए आश्रम में
सोचता हुआ इन्हें भी अपनी
दुनिया में बसा लेता वह सोचता हुआ आया अपनी
आत्मा को ढांढस बंधाता हुआ नहीं मैंने अपने सुख के लिए
नहीं मनाई दीवाली

संसारजी गए
अस्पतालों में जहां मरीज़ थे क़राह रहे
अपने बिस्तरों में उन्होंने
फल बांटे कुछ फूल कुछ ख़ुशियां लिए
वह थे भरे-पूरे दीवाली की ख़ुशी से

कहते हैं शोर बहुत था मनीमज़रा में
वहां कुछ लोगों ने
किया तमाशा उसके गहरे में
सहम कर रह गई गाय शोर से वह दुबक गई
पेड़ों के नीचे दीवारों की आढ़ में
वह उनके लिए घर से रोटियां पकाकर ले गए थे

नायक बाबू उन्होंने दीवाली को मनाया नहीं
सहलाया भर और घर आकर सो गए
कुल शहर का
शोर जब चरम पर पहुंचा तब नौ से बारह
के बीच का समय रहा होगा
बिहार से आए श्यामसुंदर
तब हॉस्टल छोड़कर जा चुके थे
और वह पार्थो घोष की फ़िल्म
अग्निसाक्षी को तीसरी बार देख रहे थे
बतरा सिनेमा के आख़िरी शो में
वहां चार-पांच लोग ही पूरे हॉल में
थे जैसे ही ज़ोर का कोई पटाख़ा
बजता नाना पाटेकर और पोज़ेसिव हो जाता
और प्यार में एक के बाद एक
फिर फिर कोड़ा मनीषा कोईराला की जांघों में
मारता जाता

दीवाली का एक दीवा
भलाई का जला एक तरह
दीवाली में।
(1998)