भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उजाले की खुशबू / सोम ठाकुर

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:30, 24 फ़रवरी 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झरे हुए वर्षो को
उगने वाले कल को
हमने दी खुले उजाले कि खुशबू
हर कोलाहल को

सुना किए सहमे खामोश प्रहर
गाथाएँ ठोस अंधेरे कि
यह कैसी हवा चली! और बढ़ी
सीमाएं खूनी घेरे की
गहराती गई मृत्युगंधा हर झील यहाँ
प्रश्न उठा -कौन सूर्य सोखेगा
ज़हर -घुले जल को?

अंतहीन कड़ुआया बहरापन
भीड़ों को चीरता गया
एक ध्वंस -धर्मा अँधा मौसम
अंकुर के पास आ गया
होंठों पर हरे शब्द रखकर हम
जिया किए केवल भीतर के मरुथल को

पलक उठाते दिन का नया उदय है
तट पर बेहोश हुई शाम यह नहीं
है यह आरंभ नई मंज़िल का
काँपता विराम यह नही
अब स्वयं ग़ुजरकर हम सुलगते वनों से
पार करेंगे पाँवों -लिपटे दलदल को