भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख / अचल वाजपेयी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:33, 27 अक्टूबर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसे जब पहली बार देखा

लगा जैसे

भोर की धूप का गुनगुना टुकड़ा

कमरे में प्रवेश कर गया है

अंधेरे बन्द कमरे का कोना-कोना

उजास से भर गया है


एक बच्चा है

जो किलकारियाँ मारता

मेरी गोद में आ गया है

एकान्त में सैकड़ों गुलाब चिटख गए हैं

काँटों से गुँथे हुए गुलाब

एक धुन है जो अन्तहीन निविड़ में

दूर तक गहरे उतरती है


मेरे चारों ऒर उसने

एक रक्षा-कवच बुन दिया है

अब मैं तमाम हादसों के बीच

सुरक्षित गुज़र सकता हूँ