भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुखरित सम्वेदन / वीरेंद्र मिश्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:21, 28 सितम्बर 2015 का अवतरण
मुखरित सम्वेदन
रचनाकार | वीरेंद्र मिश्र |
---|---|
प्रकाशक | पुस्तकायन, 2/ 4240 ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -- 110002 |
वर्ष | 1990 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | मुक्तक संग्रह |
विधा | |
पृष्ठ | 305 |
ISBN | 978-93-80402-23-9 |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- संचित है विष और सुधा का मेरा अपना सागर मंथन / वीरेंद्र मिश्र
- आस को रोकना / वीरेंद्र मिश्र
- तुम जो कंचन हो, मैं जो रजकन हूँ / वीरेंद्र मिश्र
- दीप में कितनी जलन है / वीरेंद्र मिश्र
- गीत नहीं है भीख कि जिसका निश्चित कोई दाता हो / वीरेंद्र मिश्र
- तानसेन की नगरी से जो गीत सन्देसा बनकर आए / वीरेंद्र मिश्र
- मेरे गीतम आरोहों में, स्वर-गंगा ख़ुद ही उतरी है / वीरेंद्र मिश्र
- कोई मुझको गायक कहता, कोई मुझको कवि समझे है / वीरेंद्र मिश्र
- गाने को बैठा हूँ तो फिर, गाऊँगा मैं शान से / वीरेंद्र मिश्र
- हर सुमन ही नहीं, यहाँ भ्रमर भी गाता / वीरेंद्र मिश्र
- कोई सुने तो ज़रा झूम के भी गाऊँ मैं / वीरेंद्र मिश्र
- दृग से दृग कहता मिलने पर, तू ही शरमा ही जाएगा / वीरेंद्र मिश्र
- तुम मठाधीश, मन्दिराधीश, कैसे मन्दिर के प्रहरी हो / वीरेंद्र मिश्र
- प्यार कहीं जागा है, प्यार कहीं सोया है / वीरेंद्र मिश्र
- तुम सब तो कह चुके, मुझको भी कहने दो / वीरेंद्र मिश्र
- तुम पलक उठाओ तो, तुम अलक सँवारो तो / वीरेंद्र मिश्र
- जो मुस्करा रहा है, वो ही सुमन चमन का / वीरेंद्र मिश्र
- ब्याह डाली प्रीति मैंने, अब उसे ही गा रहा हूँ / वीरेंद्र मिश्र
- सुलग रहा अन्धेरा, न छोड़ साथ मेरा / वीरेंद्र मिश्र
- बैठी है जो सभा, उसे उठने की इतनी जल्दी क्यों है / वीरेंद्र मिश्र
- उनकी मस्ती क्या मस्ती, जो तोड़ रहे हैं प्याले / वीरेंद्र मिश्र
- तुमने क्यों बाँध लिया है मुझे निगाहों में / वीरेंद्र मिश्र
- तुमने मुझे बुलाया साथी जब हो गए पराए हम / वीरेंद्र मिश्र
- तू दुखि है, मैं दुखी हूँ, यह निकट परिचय हमारा / वीरेंद्र मिश्र
- तुमने मधुवन बसा लिया है, मेरे दृग के नदी किनारे / वीरेंद्र मिश्र
- फूल बनना चाहते हो, गन्ध भी बनना पड़ेगा / वीरेंद्र मिश्र
- सुन रे फूल, पुकार दूर की, कब से तुझको टेर रहा हूँ / वीरेंद्र मिश्र
- बाँह में पृथ्वी सम्हाले, कह रहा आकाश हमसे / वीरेंद्र मिश्र
- कूल कह रहा लहर मुझे दो, फूल कह रहा भ्रमर मुझे दो / वीरेंद्र मिश्र
- शूल चुभा मेरे पैरों में, तुम्हें पता क्या पीर का / वीरेंद्र मिश्र
- रातों से चाँद हटा उजियाला करन्बे को / वीरेंद्र मिश्र
- भीगती जा रही रात है, भीगता जा रहा है गगन / वीरेंद्र मिश्र
- मन में तो है कम भावुकता, किन्तु दिखावे में ज़्यादा है / वीरेंद्र मिश्र
- दिया जल रहा मन का जो, वह कोई दिया नहीं है भाई / वीरेंद्र मिश्र