कमाल की औरतें १२ / शैलजा पाठक
चार चूडिय़ों को सेफ्टीपिन से बांधे
तुम उनका खनकना बंद कर सकती थी
पर बिंधना नहीं
कलाई पर नीले स्याह गोदना से लिखा
कु.पा.
तुम्हारी आंखों में काले धबे से उभरता
हमने तुम्हारी बिछिया को गोल-गोल घुमाते हुए
तुम्हारी गांठें देखी थीं
तुमने उन्हें कभी नहीं खोला
बुआ! रात आसमान से कुछ ना बरसता
तुम उस नीले परदे को भेद
अतीत में सेंध लगाती थी ना
कौन सी कुंडली बांचती
फेरों का गीत गाती
हमें अपने पेट पर लेटा
गले से भींच
उस अभागे पति के साथ को बिसूरती
जो तुम्हें ब्याह लाया
और छोड़ गया अपनी पियरी मौरी सिनोहरा
बरसों बरस तुम्हारा भगोड़ा पति
तुम्हें उलाहनों में बांध गया
सास ससुर कहते ना थके
'करिया मोट लरिकी से हमार लरिका खुश ना रहे'
लेकिन तुम बुआ उनकी सेवा में
बनी रही...घर की प्रहरी भर
भरे अनाज पकी छत बीघा जमीन की स्वामिनी
तुम्हारे माथे के घूंघट में
आग उगलती उस लाल टिकुली का
सामना कौन करता भला
तुमने समय की तराजू को खाली छोड़ा
तुम्हें पता था जमीन माटी आसमान फूल बगिया से
भारी था तुम्हारी कलाई का गोदना
चमकती मछली रेत की नदी में घुल-घुल मरी
गांव में ज़िन्दा रही ये कहानी...।