भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शमशेर की कविता / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:13, 17 फ़रवरी 2013 का अवतरण
छुइए
मगर हौले से
कि यह कविता
शमशेर की है ।
और यह जो
एक-आध पाँखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
है
न?
इसे भी
न हिलाना ।
बहुत मुमकिन है
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऐसे रक्खा हो ।
दरअसल
शरीर र्में जैसे
हर चीज़ अपनी जगह है
शमशेर की कविता है ।
देखो
शब्द समझ
कहीं पाँव न रख देना
अभी गीली है
जैसे आँगन
माँ ने माटी से
अभी-अभी लीपा है
शमशेर की कविता है।