भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाहाकार / नवीन ठाकुर 'संधि'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सांझै रोॅ छै है गति,
बिहानेॅ की होतै छति?
है ते,ॅ समय बतैतों।

मरी गेलै मकई-मडुआ
परै नै छै पानी परूआ
भूखें तड़पै छै बूढ़ोॅ बुतरूवा,
जालेॅ-मालेॅ खोजै छै लरूवा।
भोगलेॅ छै पुरखा पति,
है तेॅ बूढ़े-पुराने बतैतों।
सांझै रोॅ छै है गति।


आभरको मारा पौर बुझैतौं,
छन-छन के भूखें पेट जलैतौं।
भूखें जैतेॅ सब्भें दिल्ली बंगाल,
अन्नोॅ बिना सब्भेॅ कंगाल।
कहै छै ‘‘संधि’’ जमीनों में खटोॅ
कि बिगड़लौं मति।