भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात / तुम्हारे लिए / मधुप मोहता

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 9 अक्टूबर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने कभी रात की ख़ामोशी से बातें की हैं?
उसकी तनहाई का दर्द कभी बाँटा है?
जिसके सीने की आँच में तपकर,
रोज़ इक चाँद पिघल जाता है।
तुमने देखे हैं कभी रात के ज़ख़्म,
और देखा है उनसे उठता धुआँ-
धुआँ, जो अँधेरा बनकर,
रात के दामन से लिपट जाता है।
तुमने सुनी है कभी रात की सिसकी,
उसकी तल्ख़ी को, तड़प को, महसूस किया,
जिसकी आँखों से रिसता हुआ ग़म,
ओस की बूँद बनकर बिखर जाता है?
तुमने कभी रात की ख़ामोशी से बातें की हैं,
उसकी तनहाई का दर्द कभी बाँटा है?