भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घड़ी / आरती तिवारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:51, 15 नवम्बर 2017 का अवतरण (Sharda suman ने घड़ी / आरती वर्मा पृष्ठ घड़ी / आरती तिवारी पर स्थानांतरित किया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो पिता की घड़ी थी
चाँदी सी चमकती चेन में मढ़ी थी
घड़ी की भी एक कहानी थी
सुनी पिता की ही जुबानी थी

वे कहते
कभी दो सेकेंड भी
आगे पीछे नही हुई
जबसे खरीदी है
सदा नई है

उनकी घडी का ये फलसफा था

घड़ी वो
जो बीस रूपये में ली हो
टाइम ठीक बताती हो
बिना रसीद की हो
हम विभोर हो सुनते
घड़ी को छूकर गौरान्वित होते
पिता चौबीस घण्टे में
एक बार चाबी भरते
और घड़ी सदा टिकटिक करती रहती
मुस्तैदी से

घड़ी ने निकाल दी
एक पूरी उम्र
बिना नागा,सुबह चार बजे जगा देती
उसकी सुइयों पर
दौड़ता था वक़्त
पिता कभी नही हुए किसी काम में लेट
वे अपनी घड़ी के
घण्टे वाले कांटे को अतीत कहते
जो मिनटों पर थिरकता
वही उनका वर्तमान था
और साइड बार के छोटे से कांटे को
वे बड़ी आशान्वित निगाहों से देखते
और उनके सपनों में
वो बड़ा हो जाता

उन्होंने नही की कोई शिकायत
कभी घण्टे वाले कांटे से
जिसकी चाह थी
क्यों नही मिला वो
वे साइड बार को भी साइड में ही रखते
कहते अपेक्षा मत करो
और भागते हुए मिनट वाले कांटे को
जीते रहे हर पल

उनकी घड़ी बड़ी विश्वसनिय थी
अब नहीं बनती
उनके ब्रांड की घडी
हमारी यादों में
हर पल टिक-टिक करती
उनकी घडी