भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जली हुई देह / गोविन्द माथुर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:26, 3 जुलाई 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह स्त्री पवित्र

अग्नि की लौ से गुज़र कर

आई उस घर में

उसकी देह से फूटती रोशनी

समा गई घर की दीवारों में

दरवाज़ों और खिड़कियों में


उसने घर की हर वस्तु

कपड़े, बिस्तर, बर्तन

यहाँ तक कि झाडू को भी दी

अपनी उज्जवलता

दाल, अचार, रोटियों को दी

अपनी महक


उसकी नींद, प्यास, भूख

और थकान विलुप्त हो गई

एक पुरूष की देह में


पवित्र अग्नि की

लौ से गुज़र कर आई स्त्री को

एक दिन लौटा दिया अग्नि को


जिस स्त्री ने

पहचान दी घर को

उस स्त्री की पहचान नही थी

जली हुई देह थी

एक स्त्री की