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कल्पना जिनकी यत्नहीन रही / जहीर कुरैशी
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कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
उनके पैरों तले ज़मीन रही
मैं भी उसके लिए मशीन रहा
वो भी मेरे लिए मशीन रही
बन के ‘छत्तीस’ एक घर में रहे
मैं रहा ‘छ:’ वो बन के ‘तीन’ रही
हर कहीं छिद्र देखने के लिए
उनके हाथों में खुर्दबीन रही !
पूरी बाहों की सब कमीजों में
साँप बनकर ही आस्तीन रही
तन से उजली थी रूप की चादर
किंतु मन से बहुत मलीन रही
आदमी हर जगह पुराना था
ज़िन्दगी हर जगह नवीन रही.