भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

असमंजस / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:57, 23 नवम्बर 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

असमंजस की
पीड़ा बाँचे
कौन यहाँ पर,
बहुत दिनों से
हवा रही है
मौन यहाँ पर
  पथरीली राहों पर
       चलतीं
      नहीं देर तक
     धूप -छाँव की बातें।

विश्वासों में
बहुत देर तक
नहीं ठगाए,
अविश्वास ही
नागफनी बन
चुभते आए ।
इस चुभन में
हर साँस
बहुत देर तक गुमसुम
तारे गिनती रातें।

चन्दन वन की
आस लगाए
पाले विषधर,
सिर्फ़ दंश ही
हमें मिले थे
क़दम -क़दम पर ।
फिर भी हम मुस्काते
रहे रात-दिन सहते
चुप-चुप छल की घातें ।
-0-(23-07-2001)