भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परछाईं / प्रेमशंकर रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:39, 30 दिसम्बर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पेड़-पौधों-पहाड़ों
पठारों वनों
यहाँ तक कि
चींटियों की भी होती परछाईं
लहरों पर हवा की
दूब पर किरणों की
झील पर अकाश की

हर उपस्थिति के साथ
उपस्थित है परछाईं
जिनमें छिपे होते डर
और जिन्हें
कितने ही गोते लगा
मुश्किल है उलीचना
जो अपनी ही
परछाइयों पर सवार होकर
सामने देखते चलते हैं
वे ही अपने गंतव्य के
बहुत क़रीब होते हैं।