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एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब / ग़ालिब
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एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर, वदीअ़त-ए-मिज़गान-ए-यार<ref>प्रेमी के पलकों की धरोहर</ref> था
अब मैं हूँ और मातम-ऐं-यक-शहर-ए-आरज़ू<ref>अभिलाषाओं रूपी महल के उजड़ जाने का शोक</ref>
तोड़ा जो तूने आईना तिमसाल-दार<ref>चित्रमय</ref> था
गलियों में मेरी न'श<ref>लाश</ref> को खींचे फिरो कि मैं
जां-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार<ref>गली-2 घूमने-फिरने की इच्छा का पीड़ित</ref> था
मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा<ref>वफा के मरुस्थल की मरीचिका</ref> का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आबदार<ref>चमकदार</ref> था
कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार<ref>संसार-सम्बंधी गम़</ref> था
शब्दार्थ
<references/>