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कुछ फुटकर शेर / फ़ानी बदायूनी
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रफ़्तए-नज़र<ref>उपेक्षित दृष्टि</ref> हो जा, सबसे बेख़बर हो जा।
खुल गया है राज़ अपना खुल न जाये राज़ उनका॥
फ़रेबे-जल्वा और कितना मुकम्मिल ऐ मुआ़ज़ल्लाह।
बड़ी मुश्किल से दिल को बज़्मे-आलम से उठा पाया॥
हाय क्या दिन है कि नक़्शे-सजदा है और सर नहीं।
याद है वोह दिन कि सर था और वबालेदोश<ref>कंधों का बोझ</ref> था।
घर खै़र से तक़दीर ने वीराना बनाया।
सामाने-जुनू<ref>उन्माद का सामान</ref> मुझ से फ़राहम <ref>एकत्र</ref>न हुआ था॥
बालींपै <ref>बीमार के सिरहाने</ref> जब तुम आये तो आई वोह मौत भी।
जिस मौत के लिए मुझे जीना ज़रूर था॥
थी उनके सामने भी वही शाने-इज़्तराब<ref>तड़पने की शान</ref>।
दिल को भी अपनी वज़अ़पै कितना ग़रूर था।
शब्दार्थ
<references/></poem>