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गुले-नग़मा / फ़िराक़ गोरखपुरी
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गुले-नग़मा
रचनाकार | फ़िराक़ गोरखपुरी |
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प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन, १५-ए, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद -१ |
वर्ष | तृतीय संस्करण १९८३ (कॉपीराइट श्री पद्मकुमार जैन, देहरादून) |
भाषा | हिन्दी (मूल उर्दू से रूपान्तर डॉ० जाफ़र रज़ा द्वारा) |
विषय | |
विधा | ग़ज़ल, कवितायें, मुक्तक |
पृष्ठ | २७८ |
ISBN | |
विविध | इस पुस्तक के लिये फ़िराक़ गोरखपुरी को 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- आँखों में जो बात हो गई है / फ़िराक़ गोरखपुरी
- ये सुरमई फ़ज़ाओं की कुछ कुनमुनाहटें / फ़िराक़ गोरखपुरी
- है अभी महताब बाक़ी और बाक़ी है शराब / फ़िराक़ गोरखपुरी
- दीदनी है नरगिसे - ख़ामोश का तर्ज़े - ख़िताब / फ़िराक़ गोरखपुरी
- रात भी नींद भी, कहानी भी / फ़िराक़ गोरखपुरी
- एक शबे-ग़म वो भी थी जिसमें जी भर आये तो अश्क़ बहायें / फ़िराक़ गोरखपुरी
- बन्दगी से कभी नहीं मिलती / फ़िराक़ गोरखपुरी
- बे ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो / फ़िराक़ गोरखपुरी
- उजाड़ बन के कुछ आसार से चमन में मिले / फ़िराक़ गोरखपुरी
- वो आँख जबान हो गई है / फ़िराक़ गोरखपुरी
- हाल सुना फ़सानागो, लब की फ़ुसूँगरी के भी / फ़िराक़ गोरखपुरी
- ज़मी बदली, फ़लक बदला, मज़ाके-ज़िन्दगी बदला / फ़िराक़ गोरखपुरी
- निगाहों में वो हल कई मसायले - हयात के / फ़िराक़ गोरखपुरी
- ये सबाहत की ज़ौ महचकां - महचकां / फ़िराक़ गोरखपुरी
- ज़हे-आबो-गिल की ये कीमिया, है चमन की मोजिज़ा-ए-नुमू / फ़िराक़ गोरखपुरी
- ये कौल तेरा याद है साक़ी - ए - दौराँ / फ़िराक़ गोरखपुरी
- नैरंगे रोज़गार में कैफ़े - दवाम देख / फ़िराक़ गोरखपुरी
- वादे की रात मरहबा, आमदे - यार मेहरबाँ / फ़िराक़ गोरखपुरी
- ये सबाहत की जौ महवकां-महचकां / फ़िराक़ गोरखपुरी