भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2
Kavita Kosh से
अभिलाष पुरोहित (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 19:42, 21 अगस्त 2008 का अवतरण
तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अम्बर से?
- अथवा अकस्मात् मिट्टी से
- फूटी थी यह ज्वाला?
- या मंत्रों के बल जनमी
- थी यह शिखा कराला?
- अथवा अकस्मात् मिट्टी से
कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने?
- शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
- जब वर्जन करती है,
- तभी जान लो, किसी समर का
- वह सर्जन करती है।
- शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
- ऐसी शान्ति राज्य करती है
- तन पर नहीं, हृदय पर,
- नर के ऊँचे विश्वासों पर,
- श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
- ऐसी शान्ति राज्य करती है
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।
- कृत्रिम शान्ति सशंक आप
- अपने से ही डरती है,
- खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
- कभी नहीं करती है।
- कृत्रिम शान्ति सशंक आप
और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था
में सिख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन-
सार, सिद्धि दुर्लभ है।
- पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
- शोणित पीकर तन का,
- जीती है यह शान्ति, दाह
- समझो कुछ उनके मन का।
- पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
सत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?