भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दादी की तरह दुनिया / नीरज दइया
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:13, 27 अक्टूबर 2009 का अवतरण
निरन्तर
बीमारी में अधरझूल
झूल रही है दादी ।
यह झूलना
लगभग ख़त्म ही समझो अब
लेकिन
मन नहीं भरता, दादी का ।
दादी !
क्यों है तुम्हारा
जीये जाने से इतना मोह
अब क्या रह गया है शेष
जबकि तुम्हारे बच्चे तक
नाक-नाक आ गए हैं
अपनी नाक रखते
गली मुहल्ले के भय से
मित्रो !
दादी की तरह
दुनिया भी झूल रही है
अधरझूल !
अनुवाद : मोहन आलोक