आमों की तारीफ़ में / ग़ालिब
हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़ क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़
ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना
मुझ से क्या पूछता है क्या लिखिये नुक़्ता हाये ख़िरदफ़िशाँ लिखिये
बारे, आमों का कुछ बयाँ हो जाये ख़ामा नख़्ले रतबफ़िशाँ हो जाये
आम का कौन मर्द-ए-मैदाँ है समर-ओ-शाख़, गुवे-ओ-चौगाँ है
ताक के जी में क्यूँ रहे अर्माँ आये, ये गुवे और ये मैदाँ!
आम के आगे पेश जावे ख़ाक फोड़ता है जले फफोले ताक
न चला जब किसी तरह मक़दूर बादा-ए-नाब बन गया अंगूर
ये भी नाचार जी का खोना है शर्म से पानी पानी होना है
मुझसे पूछो, तुम्हें ख़बर क्या है आम के आगे नेशकर क्या है
न गुल उस में न शाख़-ओ-बर्ग न बार जब ख़िज़ाँ आये तब हो उस की बहार
और दौड़ाइए क़यास कहाँ जान-ए-शीरीँ में ये मिठास कहाँ
जान में होती गर ये शीरीनी 'कोहकन' बावजूद-ए-ग़मगीनी