बुझा दो चिराग़े-मुहब्बत मुझे इन फ़रेबी उजालों की क्या है ज़रूरत / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
बुझा दो चिराग़े-मुहब्बत मुझे इन
फ़रेबी उजालों की क्या है ज़रूरत ,
कि दिल ही बहुत ग़म सुनाने को अपना
मुझे दुनिया वालों की क्या है ज़रूरत !
हमीं को मुहब्बत नहीं करनी आई
कि या वो बहुत बेवफ़ाई पे उतरे ,
जो होना था वो हो चुका है ज़माने
कि अब इन सवालों की क्या है ज़रूरत !
इन आँखों में रक्खेंगे कब तक समाए
ये उजली-सी यादों के धुंधले से साए ,
नहीं पास जिनके पता तक भी अपना
अब उन के ख़्यालों की क्या है ज़रूरत !
प्यालों की होती है वुक्कत ही तब तक
कि लबरेज़ होते हैं मय से ये जब तक ,
पिए जाम और फिर दिया फ़ेंक उनको
कि ख़ाली प्यालों की क्या है ज़रूरत !
ये सारा जहां लगने लगता है अपना
अगर पास हो कोई हसरत या सपना ,
मगर जिसकी कोई तमन्ना न ख़्वाहिश
उसे दुनिया वालों की क्या है ज़रूरत !
अगर जी सकें हम न ज़िन्दादिली से
तो लेना हमें क्या है फिर ज़िन्दगी से ,
मिलें जो हमें ज़िन्दगी बेच कर ही
तो उन दो निवालों की क्या है ज़रूरत !