भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाला / रमेश कौशिक

Kavita Kosh से
Kaushik mukesh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:51, 25 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मकड़ी जाला बुनती है
तुम भी जाला बुनते हो
मैं भी जाला बुनता हूँ
हम सब जाले बुनते हैं।

जाले इसीलिए हैं
कि वे बुने जाते हैं
मकड़ी के द्वारा
तुम्हारे, मेरे
या हम सब के द्वारा।

मकड़ी, तुम या मैं
या हम सब इसीलिए हैं
कि अपने जालों में
या एक-दूसरे के बुने
जालों में फँसे।

जब हम जाले बुनते हैं
तब चुप-चुप बुनते हैं
लेकिन जब उनमें फँसते हैं
तब बहुत शोर करते है।