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बड़ा अजीब-सा मंज़र दिखाई देता है / कुमार अनिल

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Kumar anil (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:46, 6 दिसम्बर 2010 का अवतरण

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बड़ा अजीब सा मंजर दिखाई देता है।
तमाम शहर ही खंडहर दिखाई देता है।

जहाँ, उगाई थी हमने फसल मुहब्बत की,
वो खेत आज तो बंजर दिखाई देता है।

जो मुझको कहता था अक्सर कि आइना हो जा,
उसी के हाथ में पत्थर दिखाई देता है।

हमें यह डर है किनारे भी बह न जायें कहीं,
अजब जुनूँ में समन्दर दिखाई देता है।

अजीब बात है, जंगल भी आजकल यारो,
तुम्हारी बस्ती से बेहतर दिखाई देता है।

न जाने कितनी ही नदियों को पी गया फिर भी,
युगों का प्यासा समन्दर दिखाई देता है।

वो जर्द चेहरों पे जो चाँदनी सजाता है,
मुझे खुदा से भी बढ़कर दिखाई देता है।