भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है / नील कमल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:55, 22 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नील कमल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> सरक रहे हैं पौरुषपूर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरक रहे हैं
पौरुषपूर्ण तनों के कंधों से
पीतवर्णी उत्तरीय

ढुलक रही है
अलसाई टहनियों के माथे से
हरी ओढ़नी

एक थके पेड़ के उघड़े सीने पर
फूली नसों-सी शाखाएँ
पढ़ी जा सकती हैं, अक्षरों-सी

ये फ़ागुन के चढ़ते हुए दिन हैं
बौराए आम के सिर पर
उग रही है कलँगी

उदास नीम पर आ गए हैं
गुच्छों में फ़ूल,
उजाड़ पेड़ पर कूकती है
बेफ़िक्र एक कोयल

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का
समय है,
एक बीतता हुआ सम्वत
अब जल उठेगा, धरती के कैलेन्डर पर

ढोलक की थाप पर
साल का पहला चैता गाकर
लौटेंगे लोग गाँव की तरफ़
अब बदल जाएगा मौसम,
तैयार होंगे पेड़
जेठ के उदास दिनों की
लम्बी दुपहरिया के लिए....

जिन्हें पेड़ कहते थे हम
वे तने हुए हाथ थे, धरती के ।