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सब का ख़्वाब / मख़दूम मोहिउद्दीन
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वो शबे मय वो शबे महताब, मेरी ही न थी
वो तो सबका ख़्वाब था
वो जो मेरा ख़्वाब कहलाता था, मेरा ही न था
वो तो बस का ख़्वाब था
साय-ए-गेसू में बस जाने के अरमाँ दिल में थे
मेरे दिल में ही न थे
वो तो सबका ख़्वाब था
लाख दिल होते थे लेकिन
जब धड़कते थे तो इक दिल की तरह
जब मचलते थे तो इक दिल की तरह
जब उछलते थे त इक्दिल की तरह
जब महक उठते तो दुनिया का महक उठता था दिल
वोल्गा का, यांग्सी का, नील का, गंगा का दिल
आप में इक गर्मी-ए-एहसास होती थी
नहीं मालूम वो क्या हो गई
चाँदनी-सी मेरे दिल के पास होती थी
नहीं मालूम वो क्या हो गई ।
शब्दार्थ
<references/>