भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेल का अमरूद / अरुण कमल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:22, 25 अप्रैल 2008 का अवतरण
बहुत दिनों से टिका कर रक्खा था
बैरक के पीछे झुलसे हुए पेड़ पर
एक अमरूद
पहले दिन जब अचानक उधर से गुज़रते
सिहुली लगी डालों पत्तों के बीच
पड़ी थी नज़र
तो अभी-अभी फूल से उठा ही था फल
हरा कचूर
रोज़ देख आता था एक बार
किसी से बिना बताए चुपचाप किसी न किसी बहाने
और आख़िर जब रहा नहीं गया आज
तो
तोड़ ही लाया हूँ
बस एक काट काटा अमरूद
कि भर गया रस से सारा शरीर
भींग गई हड्डी तक