अपना गाँव / शलभ श्रीराम सिंह
याद आया आज अपना गाँव !
हाँ, मसोढ़वा गाँव ! ऊँचवा गाँव !
नीम-महुआ-आम-पीपल की घनेरी छाँव ! अपना गाँव...!
यह धोबहिया और भीमाताल-वह चन्दनशहीद !
वह असलिया और होलिया याद आते आज !
याद आते हैं कँटिअवा के करौंदे !
वह गड़हिया के किनारे का करियवा
और
उत्तर के बगीचे का नुनहवा आम !
याद आता है मदरसे का कुँआ-कँटवास-डिह का थान-
काली का चउतरा !
वह दखिन की चमरवट-वह हैंसवापुर गाँव !
याद आती है नहर में डूबती-सी शाम !
खत्म कर घर का सभी छॊटा बड़ा हर काम
सोचती होगी ’जलाऊँ आग!’ माई
और आँगन में बिछाये चारपाई-लेट
आजी...कर रही होगी अभी विश्राम !
झर रहा होगा नयन से नीर
कहती जा रही होगी स्वयं से :
क्या न आयेगा कभीं श्रीराम ?
याद आती है पिता जी की बहुत ही
और वह श्रीदेव !
(अब तो हो गया होगा सयाना!)
और बिमली !
[हाय, राखी के बिना सूनी कलाई आज भी सूनी पड़ी है!]
वह मिडिल स्कूल !
परमा-बिकरमा-चनकेस-रौपरसाद !
भाले-प्रेमनारायण-भुआले और बाघे !
मिसिर-बचई और नत्थे !
कन्तिया !
कन्तिया : पीछे रही जो एक साल !
हो रहा था आठवें का इम्तहान
तब मुझे उसने दिये थे
क्रैफ्ट के सामान !
याद आते हैं बहुत सरपंच !
जिनको लोग कहते थे कभी पागल ! और जिनके साथ
भटका हूँ कभी मैं - कबिरहा-बबुरा-लवइय-सैतपुर तक !
एक लम्बी साँस लेकर-बन्द कर आँखें-सहज ही सबों से जो
कहा करते थे : खा गया मैं सड़क पर चलते हुए हर आदमी को !
रेलगाड़ी-बैलगाड़ई...और मोटर...और स्टेशन...!
और साँड़ों की तरह जो डकरते-भरते ठहाके-ज़ोर से सुर साध गाते थे
’लड़िगईं...लड़िगईं...लड़िगईं...लड़िगईं
अँखियाँऽऽऽ श्यामसुंदर सों ऽऽऽऽऽ...!’
याद आते हैं बहुत जयराम !
याद आती आज अवधू की-बदल की !
याद आते हैं बहुत बितई और सिवदास-चन्दी !
याद आते हैं बहुत निर्भय और विसुनाथ !
आज शौक़त और छब्बू याद आते !
याद आते हैं तुफानी और बन्दे !
याद आती आज राधे की-भजन की !
आह ! स्थिति ही बिगड़ती जा रही मन की !
याद आता है चैत का भोर-सावन की अँधेरी रात !
पास अपने हिनहिनाता लग रहा है घोड़कराइत साँप !
मन रहा है काँप-थर-थर कर रहे हैं पाँव !
याद आया आज अपना गाँव !
(1962)