भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखना / शिवदयाल
Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:46, 18 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवदयाल |संग्रह= }} <poem> देखो ऐसे कि वह सबका देखना ह…)
देखो ऐसे
कि वह सबका देखना हो
अलग देखना
अलग तरह से देखना
अलग-अलग कर देता है
सब कुछ
वह समय
सबसे खराब रहा
जबकि तुमने वही देखा
जो तुमने देखना चाहा
क्योंकि तुम्हारा देखना
सबका देखना नहीं था
और सबका भोगना
तुम्हारा भोगना नहीं...
जिओ ऐसे
कि वह सबका जीना हो